Kabir Amrit Vani Aur Dohe
कबीर दास जी के दोहे और सुविचार
अर्थ : कबीर जी कहते है कि मैं जब इस संसार में
बुराई
खोजने
चला तो मुझे कोई बुरा न दिखाई दिया और जब मैंने अपने मन के अंदर झाँक
कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा तो कोई नहीं है।
अर्थ : कबीर जी कहते है कि बड़ी बड़ी पुस्तकें को पढ़ कर संसार में कितने ही व्यक्ति मृत्यु के द्वार पहुँच गए, लेकिन सभी विद्वान न हो सके. वह यह भी मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार से केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले अर्थात वह प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी हो जाता है।
अर्थ : कबीर जी कहते है कि इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है कहने का अर्थ यह है कि जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
अर्थ : कबीर जी कहते है कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। अगर कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ जाता है तो बहुत अधिक पीड़ा होती है।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि मन में धीरज रखने से सब कुछ प्राप्त होता है और यदि कोई भी माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो समच आने पर ही आयेगा।
अर्थ : कबीर दास जी किसी व्यक्ति को सलाह देते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति चाहे लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला फेरता रहे हैं, लेकिन उसके मन का भाव नहीं बदल सकता और न ही उसके मन की हलचल शांत होगी क्योंकि किसी भी व्यक्ति को हाथ की माला फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलना चाहिए।
अर्थ : इस दोहे में कबीर दास जी कहते है कि सज्जन व्यक्ति की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना की कोशिश करनी चाहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भी तलवार का मूल्य होता है उसकी मयान का नहीं।
अर्थ : कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि मनुष्य में एक प्रकार का ऐसा स्वभाव होता है कि जब वह दूसरों के दोष पर हंसता है तो उसे अपने दोष याद नहीं आते। इसका कभी न अंत है और न आदि।
अर्थ : इस दोहे में कबीर दास जी ने मेहनत के बारे में बताया है और कहा है कि जो व्यक्ति प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ उसी प्रकार से पा लेते हैं जिस प्रकार से कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी के अंदर जाता है और कुछ प्राप्त करके आता है लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रहते हैं और कुछ भी नहीं करते।
अर्थ : इस दोहे में कबीर दास जी ने मेहनत के बारे में बताया है कि यदि कोई सही रूप से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न समान हो जाती है। इसलिए कभी भी बोली को ह्रदय के तराजू में तोलकर ही मुंह से बाहर आने देना चाहिए।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि हमें कभी भी न तो अधिक बोलना चाहिए और न ही जरूरत से ज्यादा कम क्योंकि यह ठीक उसी प्रकार से है। जैसे कि बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं होती और बहुत अधिक धूप भी अच्छा नहीं कम।
अर्थ : कबीर दास जी ने इस दोहे में कहा हैं कि जो हमारी निंदा करता है, उस व्यक्ति के अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो ऐसा व्यक्ति होता है जो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ बनाता है।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि इस मनुष्य का जन्म मुश्किल से होता है। यह मनुष्यों का शरीर उसी तरह बार-बार नहीं प्राप्त होता जिस प्रकार वृक्ष से पत्ता झड़ जाया करता है और दोबारा डाल पर नहीं आता।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि जब इस संसार में आऐ हैं तो अपने जीवन से यही तमवा रखना चाहिए कि सब जनो का भला हो और संसार में अगर किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न करें।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और मुस्लिम रहमान को इस बात को लेकर वे दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा जा रहे है और इसके बाद भी दोनों में से कोई सच को न जान पा रहा है।
अमृत वचन सुविचार
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